याद है वो ज़माना जब नागेश कुकुनूर की ‘इकबाल’, ‘धनक’ जैसी फिल्में हमें हंसाती थीं, रुलाती थीं, और सोचने पर मजबूर करती थीं? The Hunt देखकर यही लगा — एक सिनेमा नहीं, एक एहसास! अब जब ‘रिटर्न ऑफ़ द डायरेक्टर’ की बात हो, तो वो महज वापसी नहीं, बल्कि पलट्टी है।

सच्ची कहानी है, ज़्यादा ड्रामा नहीं
राजीव गांधी के निधन के बाद चलने वाली उस 90 दिनों की जाँच—ये कोई आम थ्रिलर नहीं। हिंदुस्तान की वो दुख और हिन्दुस्तान की वो सियासत इसमें झलकती है जो हाल ही में सोशल इवेंट्स में टीवी पर दिखाई जाती है।
लेकिन सबसे अलग है वो चमक-दमक नहीं, बल्कि समझदारी और संवेदनशीलता जो पूरी सीरीज़ में बनी रहती है।
कुकुनूर का एलान — “इंसानियत पहले, ड्रामा बाद में”
कुकुनूर कहते हैं:
“जब मैं कैमरा किसी पर लगाता हूँ, तो पहले उस इंसान की तसल्ली करना चाहता हूँ — उसके दर्द, उसकी ज़िंदगी। फिर उसके बाद बाहर की दुनिया दिखाता हूँ।”
मतलब, सीरियस मामला है, लेकिन साथ ही एकदम असली और मानवता भरा।
किताब से संवाद तक — बिना राजनीति की तरफ मोड़े
The Hunt ने पत्रकार अनुरुध्य मित्रा की किताब Ninety Days को पकड़ा, लेकिन बिना कोई राजनीतिक पक्षपात फैलाए। ये किताबलेखक के विचार पर आधारित है, और कुकुनूर उस पर पूरी तरह विश्वास रखते थे।
स्क्रिप्ट लिखते वक्त उन्हें कई चुनौतियाँ मिलीं — जैसे:
“अधिकारी अभी जिंदा हैं”
“इनके परिवार का दर्द कैसे लिखूं?”
उस दर्द को बिना सियासी रंग भरे, सिर्फ एक इंसान की तरह दिखाना — ये सबसे मुश्किल था, और उन्होंने यह मुश्किल कदम भी बखूबी उठाया।
पुलिस वाले भी ज़िंदगी के खिलाड़ी, ना कि सुपरहीरो
अमित सियाल ने डी कार्तिकेयन की भूमिका निभाई, लेकिन इसमें वो वर्दी नहीं, बल्कि इंसानियत दिखी।
पुलिस वाले किसी फ़िल्मी हीरो की तरह नहीं, बल्कि टीवी पर दिखने वाले हमारे आस-पड़ोस के लोग जैसे — थके, तनाव में, परिवार की चिंता वाले, फिर भी देश से जुड़ाव होने की भावना वाले लोग।
फाइनल एपिसोड में ना कोई जोश, ना कोई माँग!
अगर आप तरह की उम्मीद रखने आए हों — “अंत में बड़ा ऐक्शन, धमाका!” — तो शायद निराश होंगे। कुकुनूर साफ कहते हैं:
“यहां कोई ब्लेजिंग क्लाइमेक्स नहीं है, कोई गुस्सा नहीं, कोई ‘जीत’ नहीं—बस वे लोग जिन्होंने जीवन के एक टुकड़े को जीया।”
उस ओपन-एंडेड सच्चाई का मासूमपन शायद ही अगली ड्रामाई वेब सीरिज़ में मिलेगा।
किस्मत की बंदूक जब भी चली
एक सीन याद आया—एक लकड़ी से लदे ट्रक ने पुलिस की रेड को बायपास किया और हमलावर का रास्ता आसान कर दिया। कुकुनूर कहते हैं:
“स्क्रीनराइटर कुछ ऐसा सोच सकता? नहीं! किस्मत ने ऐसी गेंद फेंकी, जिसने सबको चौंका दिया।”
यह घटनाएँ सिर्फ क्राइम थ्रिलर नहीं, बल्कि ज़िंदगी की मजबूरी और असफलता का हिस्सा हैं।
कोई संगीन, कोई इंसान—एक-दूसरे को समझें
The Hunt में हम देखते हैं कि कैसे कुकुनूर सभी किरदारों को एक मानवीय आवाज़ देता है— आतंकवादी हो या पुलिस ऑफिसर, सबके अंदर ज़िंदगी का चक्र चलता है।
इसका असर ऐसा होता है: आप सिर्फ कहानी नहीं देखते—आप महसूस करते हैं।
उत्तर और दक्षिण भारत की खाई
ये सीरीज़ सिर्फ एक केस की कहानी नहीं—ये उस समाज के दो हिस्सों का अहसास भी है, जहाँ “मद्रासी” कहने पर ठेस लगती है।
कुकुनूर ने महसूस किया कि कैसे हैदराबाद को ‘दक्षिण’ कहकर दिखाया जाता है, जबकि वो खुद उस बातचीत में संवेदना समझता है।
लोकेशन, लुक और संवेदनशीलता
हैदराबाद की पुरानी गलियां, मुंबई की भीड़—पर सब मिनिमल सेटअप में उभर कर आता है। कोई शाही सेट् नहीं, लेकिन 90’s की सच्ची परतें।
कैमरा उपर से गिरा, वेदना का उजाला उसमें उभरता दिखा। वर्दी से ऊपर, इंसानियत की तस्वीर बनी।
निष्कर्ष: The Hunt—एक ऐतिहासिक इमोशन्स की दस्तावेज़ी
The Hunt महज एक सीरीज़ नहीं, बल्कि एक दस्तावेज़, एक एहसास, एक समाज का उत्तर-आधुनिक प्रतिबिंब है।
यह कहानी नहीं—ज़िंदगी है। अक्षरों से भरी किताब नहीं—किरदारों की संवेदना है। यही वजह है कि हम कह सकते हैं:
“The Hunt: ये कोई फिक्शन नहीं, ये आपकी चिंताएँ और ज़मीनी हकीकत है।”